Bollywood: फिल्म हक मुस्लिम पर्सनल लॉ और महिला सम्मान की लड़ाई की दमदार कहानी

मुंबई। फिल्म “हक” एक ऐसी कहानी है जहां मोहब्बत भले ही काफी न हो, लेकिन इज्जत की तलाश सर्वोपरि है। यामी गौतम का किरदार शाजिया बानो जब अपने पति की दूसरी पत्नी के सामने यह संवाद कहती हैं कि “कभी-कभी मुहब्बत काफी नहीं होती है, हमें अपनी इज्जत भी चाहिए,” तो यह स्पष्ट संदेश देता है कि वह अपना सम्मानपूर्ण हक चाहती है। यह फिल्म 1985 में सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फैसले से प्रेरित है, जिसने शाह बानो के हक में फैसला सुनाया था कि तलाक के बाद उसके पति अहमद खान को गुजारा भत्ता देना होगा। यह फैसला जहां मुस्लिम पर्सनल लॉ में न्यायपालिका के हस्तक्षेप के रूप में देखा गया, वहीं इसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान भी आकर्षित किया।

क्या है फिल्म की कहानी

फिल्म की कहानी साल 1985 में शाजिया बानो (यामी गौतम) के टेप रिकॉर्डर के साथ हो रहे इंटरव्यू से शुरू होती है। वह अपने वकील पति अब्बास खान (इमरान हाशमी) के खिलाफ गुजारा भत्ता पाने का केस जीत चुकी है। यहां से कहानी 17 साल पीछे जाती है। शाजिया और अब्बास की अरेंज मैरिज होती है। शाजिया एक अच्छी बेगम की तरह अब्बास का घर संभालती है और अब्बास भी उसे प्यार देता है। शादी के नौ साल बाद एक दिन अब्बास पाकिस्तान चला जाता है और वापस लौटता है तो साथ में दूसरी बीवी सायरा (वर्तिका सिंह) होती है। शाजिया, बेगम से पहली बेगम बन जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि अब्बास उसे तलाक दे देता है। कुछ महीने बाद वह पैसे भेजना भी बंद कर देता है। फिर शाजिया अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती है, जो उसके सम्मान और हक की लड़ाई की शुरुआत है।

फिल्म की शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि फिल्म सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले और जिग्ना वोरा की लिखी किताब “बानो: भारत की बेटी” से प्रेरित है। ऐसा करके फिल्म के निर्देशक और लेखक कहानी को फिल्मी दायरे में मनोरंजक तरीके से दिखाते हुए राजनीतिक पचड़ों और सांप्रदायिक बहस से दूर रख पाए हैं। यह एक संवेदनशील विषय पर संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में मदद करता है।

संवाद और निर्देशन

रेशू नाथ की लिखी कहानी और संवाद बेहद प्रभावशाली हैं। उन्हें सुपर्ण एस वर्मा जैसे अनुभवी निर्देशक का साथ भी मिला है, जो कोर्ट रूम ड्रामा बनाने में माहिर हैं। खास बात यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाम सेक्युलर लॉ की इस लड़ाई में उन्होंने बिना ड्रामा किए केवल खामियों पर प्रकाश डाला है। दूसरी कोर्ट रूम ड्रामा फिल्मों की तरह इसमें चीखना-चिल्लाना भी नहीं है, जो इसे यथार्थवादी बनाता है।

संवादों के जरिए उन पर भी कटाक्ष किया गया है, जो बिना अपने धार्मिक ग्रंथ पढ़े, सही और गलत का फैसला करते हैं। “कुरान रखने, पढ़ने और समझने में बहुत फर्क होता है…”, “ना हम कौम के गद्दार हैं, न ही अपने किए पर शर्मसार हैं, हम सही हैं…”, “हमारी लड़ाई सुकून की नींद से सौदा कर चुकी थी…”, “जब कोई आपकी आवाज न सुने तो दर्द होता है…” जैसे संवाद दर्शकों से तालियां बटोरते हैं। कुरान के पहले शब्द इकरा यानी ‘पढ़ो’ की बात करते हुए फिल्म मुस्लिम लड़कियों को कुरान पढ़ने की अहमियत पर भी गहराई से बात करती है, जो शिक्षा के महत्व पर जोर देती है।

फिल्म के कुछ दृश्यों को हालांकि जल्दबाजी में निपटा दिया गया है। दंगे का एक दृश्य है, लेकिन वह क्यों और किसकी वजह से हुआ, उसका कारण साफ नहीं है। फिल्म के अंत में यामी का पात्र कहता है कि “हमारी लड़ाई हमसे बड़ी है,” जहां उसे चिंता है कि अगर फैसला उसके पक्ष में नहीं आया, तो उसके बेटे कहीं शादी के बाद दूसरे की बेटियों के साथ ऐसा न करें या उसकी बेटी का वजूद उसके लिए सवाल न बन जाए। इस सोच को एक संवाद में समेटने की बजाय सीन के जरिए और सशक्त बनाया जा सकता था। विशाल मिश्रा का गाया गाना “ओ रब्बा दिल तोड़ गया तू…” याद रह जाता है। प्रथम मेहता अपने कैमरे से पिछली सदी के आठवें दशक में ले जाते हैं, जिससे फिल्म का माहौल जीवंत हो उठता है।

दमदार अभिनय

अभिनय की बात करें तो यामी गौतम अपने अभिनय से आपको शाजिया के सफर पर पहले ही सीन से ले जाती हैं। शौहर के लिए समर्पित बेगम से लेकर तलाकशुदा होने के बाद अपने बच्चों की परवरिश के लिए चिंतित, पर मजबूत मां के रोल में वह साबित करती हैं कि उनमें हर तरह के रोल करने की काबिलियत है। तीन बार अपने शौहर से तलाक शब्द सुनने के बाद जब वह अपने हाथ को दीवार से रगड़ते हुए चलती हैं, तो वहां किसी संवाद के बिना वह एक तलाकशुदा असहाय महिला का दर्द महसूस कराती हैं।

क्लाइमेक्स में उनका और इमरान हाशमी का मोनोलॉग फिल्म का सबसे दिलचस्प सीन है। इमरान हाशमी का अभिनय शानदार है। उनका पात्र सही और गलत के बीच एक महीन रेखा पर चलता है। ऐसे में इमरान ने इस रोल को बड़े ही संतुलित तरीके से निभाया है। अदालत में उनकी जिरह एक बार के लिए दर्शकों को मानने पर मजबूर कर देगी कि वह जो कह रहे हैं, कहीं सही तो नहीं। बानो की वकील बेला जैन की भूमिका में शीबा चड्ढा तेज-तर्रार और दमदार लगी हैं। वहीं शाजिया की असली ताकत उसके पिता के रोल में असीम हट्टंगड़ी अपनी छाप छोड़ते हैं। उनका कहा संवाद “लड़की नहीं, मेरी बच्ची का नाम बानो है” याद रह जाता है। सायरा की छोटी सी भूमिका में वर्तिका सिंह भी प्रभावशाली लगी हैं, जो फिल्म को एक और आयाम देती हैं।

 

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