नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर जूता फेंकने के प्रयास के मामले में वकील राकेश किशोर के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई करने से इनकार कर दिया है। इससे पहले स्वयं मुख्य न्यायाधीश ने भी इस मामले में कार्रवाई से मना कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि अदालत में नारे लगाना या जूते फेंकना भले ही अवमानना हो, लेकिन यह संबंधित न्यायाधीश पर निर्भर करता है कि वह संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करे या नहीं। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि अवमानना नोटिस जारी होने से उस वकील को बेवजह अहमियत मिलेगी, और बेहतर होगा कि इस घटना को अपने आप खत्म होने दिया जाए।
लाइव लॉ की खबर के मुताबिक, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। एससीबीए ने अपनी याचिका में अधिवक्ता राकेश किशोर के खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्रवाई और इस घटना के सोशल मीडिया पर महिमामंडन पर रोक लगाने के लिए ‘जॉन डो’ आदेश की मांग की थी।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने दलील दी कि मुख्य न्यायाधीश ने शुरू में मामले को तूल न देने की बात कहकर अधिवक्ता पर कार्रवाई से मना कर दिया था। लेकिन बाद में किशोर ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में अपनी हरकत का बखान किया। सिंह ने तर्क दिया कि “इस पूरे मामले का महिमामंडन किया जा रहा है। अदालत के पास यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त शक्तियां हैं कि ऐसा दोबारा न हो।”
हालांकि, जस्टिस सूर्यकांत ने यह माना कि वकील का आचरण ‘गंभीर और आपराधिक अवमानना’ से जुड़ा है, लेकिन उन्होंने सवाल उठाया कि क्या न्यायालय को इस मामले को आगे बढ़ाना चाहिए, जबकि मुख्य न्यायाधीश पहले ही नरमी बरत चुके हैं। जस्टिस कांत ने आगे कहा कि न्यायालय को “इस व्यक्ति को इतना महत्व नहीं देना चाहिए?”
यह पूरा मामला 6 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान घटित हुआ था। उस दिन एडवोकेट राकेश किशोर नाम के वकील ने भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर जूता फेंकने की कोशिश की थी। इसके साथ ही उसने कोर्ट परिसर में नारे भी लगाए थे। हालांकि, सुरक्षाकर्मियों ने उसे तुरंत मौके पर ही दबोच लिया था। इस घटना ने अदालत परिसर में काफी हलचल मचा दी थी और यह विषय चर्चा का केंद्र बन गया था। एससीबीए ने इस घटना को न्यायपालिका की गरिमा के खिलाफ मानते हुए तत्काल कार्रवाई की मांग की थी, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।
कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय ऐसी घटनाओं को, खासकर जब स्वयं पीड़ित न्यायाधीश कार्रवाई न करना चाहें, तो अनावश्यक महत्व देने से बचना चाहता है। इसका उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों को और अधिक प्रचार मिलने से रोकना है, जो अपनी हरकतों से सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। कोर्ट का यह दृष्टिकोण एक प्रकार से ऐसी घटनाओं को नजरअंदाज कर उनकी गंभीरता को कम करने का प्रयास भी है, ताकि ऐसे कृत्य करने वालों को कोई मंच न मिले। हालांकि, यह भी एक तथ्य है कि ऐसी घटनाएं न्यायपालिका की गरिमा पर सवाल खड़े करती हैं, और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
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