नई दिल्ली। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के एक आदेश पर कड़ी आपत्ति जताते हुए उसे रद्द कर दिया है, जिसमें पर्यावरण मानदंडों का उल्लंघन करने के आरोप में मुरादाबाद स्थित एक हस्तशिल्प निर्यातक कंपनी पर 50 करोड़ रुपये का भारी जुर्माना लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि देश का कानून राज्य या किसी भी जांच एजेंसी को पर्यावरण संबंधी मामलों में किसी का “मांस खींचने” (अत्यधिक या अनुचित जुर्माना लगाने) की अनुमति नहीं देता है।
यह मामला मुरादाबाद की हस्तशिल्प निर्यातक कंपनी सीएल गुप्ता एक्सपोर्ट लिमिटेड से संबंधित है। एनजीटी ने पर्यावरण मानदंडों के कथित उल्लंघन के लिए इस कंपनी पर जुर्माना लगाया था। शीर्ष अदालत ने न केवल एनजीटी के जुर्माने को रद्द किया, बल्कि उसके 145 पन्नों के लंबे और विस्तृत फैसले की भी कड़ी आलोचना की।
शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने 22 अगस्त को अपने फैसले में कहा कि यदि कंपनी ने वास्तव में नियमों का उल्लंघन किया था, तो भी उसके वार्षिक कारोबार के आधार पर लगाया गया 50 करोड़ रुपये का जुर्माना किसी भी कानूनी आधार से रहित था। एनजीटी ने कंपनी का वार्षिक राजस्व 100 से 500 करोड़ रुपये के बीच पाया था और इसी आधार पर 50 करोड़ रुपये का जुर्माना लगा दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत ठहराया।
न्यायालय ने एनजीटी के फैसले पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि “विवेक का इस्तेमाल उपयोग किए गए पन्नों की संख्या के अनुपात में नहीं है।” सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी को नसीहत देते हुए कहा कि न्यायिक निर्णय की मूल आत्मा विवेकापूर्ण विचार है और अदालतों व अधिकरणों को केवल सामान्य रूप से कानून का उल्लेख करने वाले भाषणात्मक रुख अपनाने से बचना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी जोड़ा कि जुर्माना लगाने के लिए एनजीटी द्वारा अपनाई गई पद्धति किसी भी विधिक सिद्धांत के तहत स्वीकार्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि कानून किसी भी राज्य या उसकी एजेंसी को पर्यावरण से जुड़े किसी भी मामले में “एक दमड़ी दमड़ी तक वसूलने” की अनुमति नहीं दे सकता है। न्यायालय ने एनजीटी के आदेश को इस सीमा तक निरस्त करते हुए अपील को स्वीकार कर लिया। इस फैसले से पर्यावरण मामलों में जुर्माना लगाने के संबंध में न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम हुई है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि जुर्माने की राशि मनमानी या कारोबार के अनुपात में नहीं बल्कि उल्लंघन की गंभीरता और स्थापित कानूनी सिद्धांतों के आधार पर होनी चाहिए।