Special: हिमालय पर मंडराता खतरा: ‘टिक-टिक करते टाइम बम’ पर बैठा तीसरा ध्रुव, पिघलते ग्लेशियर दे रहे विनाशकारी बाढ़ की चेतावनी

नई दिल्ली। हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है और इसके संकेत इतने गंभीर हैं कि उन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG) के एक हालिया अध्ययन ने उत्तराखंड में एक भयावह तस्वीर पेश की है। अध्ययन के अनुसार, पिछले एक दशक में ग्लेशियरों की संख्या 1,266 से बढ़कर 1,290 हो गई है, जबकि हिमनद झीलों का क्षेत्रफल 8.1% तक बढ़ गया है। यह विस्तार दरअसल बड़े ग्लेशियरों के टूटने और जलवायु परिवर्तन के कारण बर्फ के तेजी से पिघलने का नतीजा है, जो हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (GLOF) के खतरे को खतरनाक रूप से बढ़ा रहा है।

वैश्विक गर्मी और विनाशकारी बाढ़ का इतिहास

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की रिपोर्ट, जिसने 2024 को अब तक के सबसे गर्म वर्षों में से एक माना है, इस खतरे को और पुख्ता करती है। लगातार बढ़ती गर्मी ‘तीसरे ध्रुव’ कहे जाने वाले हिमालय के ग्लेशियरों को पिघलाकर नई झीलें बना रही है और पुरानी झीलों को अस्थिर कर रही है। GLOF की विनाशकारी शक्ति का अंदाजा हम अतीत की त्रासदियों से लगा सकते हैं। 2013 में चोराबाड़ी झील के फटने से आई केदारनाथ आपदा में 6,000 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इसी तरह, 2021 में चमोली की रैनी-तपोवन आपदा और 2023 में सिक्किम की दक्षिण ल्होनक झील की बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी।

मानवीय और आर्थिक क्षति का बढ़ता संकट

हिमालय के ग्लेशियरों में तेजी से हो रही कमी न केवल समुद्र के स्तर को बढ़ा रही है, बल्कि गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों के लिए पानी की उपलब्धता पर भी संकट खड़ा कर रही है। अकेले उत्तराखंड में लगभग 350 हिमनद झीलें हैं, जिनमें से पांच को ‘श्रेणी ए’ यानी अत्यधिक उच्च जोखिम वाली श्रेणी में रखा गया है।

जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित मानसून और ऊंचाई पर बादल फटने जैसी घटनाएं अब आम हो गई हैं, जिससे इन नाजुक झीलों पर दबाव बढ़ रहा है। आपदा रोधी बुनियादी ढांचा गठबंधन का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर बुनियादी ढांचे को होने वाले 70% नुकसान (लगभग 800 अरब डॉलर प्रति वर्ष) का कारण जलवायु से संबंधित आपदाएं हैं, और भारत जैसे देश इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। उत्तराखंड में GLOF जीवन और जलविद्युत संयंत्रों, सड़कों और पुलों जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के लिए एक सीधा खतरा है।

चुनौतियां और समाधान की दिशा में प्रयास

इस गंभीर चुनौती से निपटने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (IIRS) जैसी कई एजेंसियां मिलकर काम कर रही हैं। उत्तराखंड सरकार इस साल पिथौरागढ़ की चार उच्च जोखिम वाली झीलों का सर्वेक्षण करने की योजना बना रही है। झील के जल स्तर को कम करने के लिए पाइप लगाने और पूर्व चेतावनी प्रणाली (EWS) तैनात करने जैसी रणनीतियों पर काम चल रहा है। हालांकि, 2023 की सिक्किम बाढ़ ने मौजूदा चेतावनी प्रणालियों की कमियों को भी उजागर किया है।

प्रणालीगत समाधान की तत्काल आवश्यकता

विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रणालीगत खतरे से निपटने के लिए प्रणालीगत समाधान की ही जरूरत है। हमें राजनीतिक मजबूरियों से ऊपर उठकर ऐसे किसी भी बुनियादी ढांचे को ‘नहीं’ कहना होगा जो पर्यावरणीय जोखिमों की अनदेखी करता हो। अनियमित पर्यटन और प्लास्टिक कचरे पर भी लगाम लगानी होगी। उपग्रह डेटा, भूकंपीय निगरानी और स्थानीय ज्ञान को एकीकृत करके जोखिम का बेहतर आकलन किया जा सकता है।

हिमालय को ‘टिक-टिक करता टाइम बम’ कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह लाखों लोगों की जीवन-रेखा है और पिघलते ग्लेशियरों और बढ़ती झीलों से मिल रही यह चेतावनी एक ऐसा अलार्म है, जिसे हम और नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकते।

 

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