विपक्षी एकता कहीं पानी पर लकीर खींचने की कोशिश तो नहीं! क्या सोनिया को मिलेगी सफलता? – The Hill News

विपक्षी एकता कहीं पानी पर लकीर खींचने की कोशिश तो नहीं! क्या सोनिया को मिलेगी सफलता?

केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष एकजुट दिखने की भरसक कोशिश में जुट गई है। इसी कड़ी में बीते दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के नेतृत्व में 19 दलों ने 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर मंथन किया। जिसमें मोदी सरकार के नाकामियों के खिलाफ हल्लाबोल का आह्वान भी सोनिया ने किया है। लेकिन इस बैठक में महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने विपक्षी दलों को सलाह दे डाली कि यह एकता चट्टानी दिखनी चाहिये। ऐसा न हो कि नेतृत्व के सवाल पर विपक्षी एकता पहले की ही तरह खंडित हो जाए। जिसकी उन्होंने आशंका जताकर विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी पर हाथ रख दी है।

नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में जुटी विपक्ष

बता दें कि पीएम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व को चुनौती देने के लिये विपक्ष लगातार विभिन्न मुद्दों के बहाने ही एकजुट होकर लामबंद हो रही है। लेकिन उद्धव की शंका जायज है। दरअसल बीजेपी हमेशा से कहती है कि विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी का विकल्प ही नहीं है। जब कभी-भी विपक्ष एकजुट नजर आता है तो सबसे बड़ा सवाल यहीं उठता है कि यह एकता उस समय काफूर हो जाएगा जब नेतृत्व करने की बारी आती है।

नेतृ्त्व के नाम पर विपक्ष मौन

हालांकि यह सच है कि फिलहाल नरेंद्र मोदी का टक्कर देने के लिये विपक्ष भले ही दम भर रहा हो लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही नजर आता है। कांग्रेस जो विपक्षी दलों का नेतृ्त्व करने की पहल कर करती है। पिछले दो साल से भी ज्यादा समय से एक स्थायी अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर पा रही है। जिससे पार्टी के शीर्ष नेतृ्त्व अपने ही वरिष्ठ नेताओं के निशाने पर रहती है। जो कांग्रेस की बदहाली को ही उजागर करती है।

जब शरद पवार,उद्धव ठाकरे ने की पीएम से मुलाकात…

इसके अलावा विपक्षी एकता तब हवा हो जाती है जब क्षेत्रिय दलों के क्षत्रप अपने हितों को साधने के लिये एनडीए और यूपीए में से किसी के साथ जाने को तैयार रहती है। कुछ दिन पहले ही शरद पवार और उद्धव ठाकरे के पीएम नरेंद्र से अलग-अलग मुलाकात को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा गया। हालांकि दोनों नेताओं ने इस अटकलों पर विराम लगाने की कोशिश की वे एनडीए में शामिल होने जा रहे है।

राहुल गांधी उठाते रहे हैं आवाज

यहीं नहीं सोनिया गांधी अब सियासी तौर पर लगातार कम एक्टिव होती जा रही है। हालांकि राहुल गांधी जरुर मोदी सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहते है। लेकिन विपक्ष को यह पता नहीं कि 2024 लोकसभा चुनाव में पीएम केंडिडेट कौन होगा-सोनिया या राहुल या फिर कोई और होंगे?

आपातकाल के बाद मजबूत हुआ गठबंधन राजनीति

इससे इतर यह सच है कि चुनावी समर में सामूहिक नेतृत्व के दम पर भी विपक्ष केंद्र हो या राज्य की सत्ताधारी सरकारों को बदलती रही है। फिर बाद में बंद कमरे में बैठकर नेता चुनने की परंपरा भी काफी लोकप्रिय हुई। भारतीय राजनीति में इमरजेंसी के बाद ही गठबंधन राजनीति का दौर शुरु हुआ। जिससे उस समय एक नया ट्रेंड बना कि शक्तिशाली इंदिरा हो या कोई और उसे सत्ता से बेदखल करने के लिये मु्द्दे ठोस हो तो चेहरे के बिना भी सरकार बनाई जा सकती है। यह ट्रेंड लगातार 90 के दशक में चरम पर रहा। लेकिन समय के साथ देखा गया कि केंद्र में थोपे गए नेता ज्यादा दिनों तक पीएम की कुर्सी पर काबिज नहीं हो सके। कारण विभिन्न दलों के महात्वाकांक्षा के चलते अंतर्विरोध बाहर सामने आने लगा। जिससे कोई भी सरकार ढ़ाई साल होते-होते गिर ही जाती थी। हालांकि अपवाद स्वरुप अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की ही सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सकी। लेकिन हमेशा सरकार पर सहयोगी दलों का दवाब ऐसा रहा कि मान-मुनव्वल का दांव-पैंच भी देखने को मिला।

राज्यों में स्थानीय नेतृत्व को देखती है जनता

लेकिन अब यह माड्यूल पुराना होने के कारण राज्यों में जनता ने खारिज करना शुरु कर दिया है। मसलन 2015,2020 का बिहार विधानसभा हो या दिल्ली विधानसभा का चुनाव बीजेपी ने कोशिश की पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर सत्ता हासिल कर लेगी। लेकिन स्थानीय नेतृत्व नहीं देने से बीजेपी को खामियाजा भुगतना पड़ा। इससे इस बात को बल मिला कि अब जनता लोकप्रिय नेताओं के नाम पर राज्य की सत्ता उनके दलों को नहीं सौंपेगी। इसके लिये क्षेत्रिय दलों का मुकाबला करने के लिये राष्ट्रीय दलों को भी विभिन्न राज्यों में सक्षम नेतृत्व तैयार करना होगा। अब यहीं प्रयोग जनता केंद्र की सरकार में भी चाहती है। जो विपक्षी दलों को जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना बेहतर होगा।

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